गुरुवार, 24 मार्च 2011

वर्तमान में महिला सशक्तिकरण और शैक्षिक संवर्धन

(राष्ट्रीय सेमिनार-राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय कांधला,मुज़फ्फरनगर ) 
महिलाओं की व्यापक सहभागिता और सांस्कृतिक संवर्धन
- डॉ.लाल रत्नाकर  
भारत में सदियों से सामाजिक स्तर पर विविध प्रकार का युद्ध चल रहा है जहाँ महिला, दलित और पिछड़े समान रूप से उससे प्रभावित हो रहे हैं, यहीं इनकी कुछेक संख्या को अलग कर उन्हें धोखे में रख शोषण की  चालाकी से उनकी प्रतिभाओं की स्तुति करके बहुसंख्य से बाँट करके बहुत ही करीने से अपमानजनक अवस्थाओं में खड़ा करके यशस्वी होने का जो भ्रम उत्पन्न किये हुए है, उससे एहसास होता है की भारत आज भी 'मनुस्मृति' की जकड की जटिल मान्यताओं के आधार पर ही चल रहा है.
आज दुर्गा,लक्ष्मी और सरस्वती, शक्ति, धन और ज्ञान की देवी के रूप में पूज्य हैं, इनकी प्रतीतात्मकता का पूरा शोषण पूंजी और धार्मिक धर्माधिकारियो के द्वारा किया जाता है. जबकि पूरी स्त्री जाती उन्ही के द्वारा नित्य अपमानित होती है. और यहीं से शुरू होती है वह जंग. यही कारण है कि भारत कि महिलाओं को भी भारतीय समाज की तरह बाँटकर रखा गया है. आज जब समस्त विश्व जागरूक हुआ हैं विविध सवालों पर तब भी भारत उसी तरह पिछड़ा है महिलाओं के सवाल पर. इन्ही बंटी हुयी महिलाओं की संवेदना के मध्य का है मेरा रचना संसार. इन्ही महिलाओं ने भारत के आधे काम अपने कन्धों पर उठाया हुआ है पर उनकी हिस्सेदारी के सवाल पर उन्हें तिरस्कार, उत्पीडन, दुराचार एवं बलात्कार के जटिलतम सन्दर्भों से गुजरना ही जीवन और मरण के मध्य का हिस्सा बन जाता है, इस तरह की सलीबों पर लटकी हुयी जिंदगी कैसे अपने धर्म का निर्वहन करती है यहीं से निकलती हैं वह संवेदनाएं जिन्हें हम देख पते हैं - माँ, बहन, पत्नी और बेटी के रूप में ही नहीं अनन्य रिश्तों में उतरती नारी क्या वास्तव में उक्त 'प्रपंचों' की अधिकारिणी है.
इन्हीं में से निकलती नारी आज क्या सदियों से अपने कौशल और सयंम से समाज को अपने को सहेजते जिस शक्ति का परिचय दिया है यही कारण है की पुरुषों को पछाड़ विविध क्षेत्रों में अग्रणी रहने की अपनी जगह बनाई है, इसमे उन नारियों का भी मान बढ़ाया  है जिसमे सदियों से सत्ता के सर्वोच्च शिखर तक पहुँचने की उनकी इक्षा की पूर्ति हुयी है.
आज का समाज नारी को प्रयोग और प्रदर्शन की सामग्री ठीक उसी तरह से बना रखा है जैसे दलितों और पिछड़ों को, जहाँ जहाँ स्त्री अपने पराक्रम के बल पर आगे आने की बात करती हैं, उसको वहाँ बांटने के सारे हथकंडे अपनाये जाते हैं वह संसद, समाज  या घर का  सवाल हो.
इन्ही वसूलों के विरोध में खड़ी हमारी रचनाएँ संभवतः तथाकथित सभ्य समाज को वैसे ही प्रतीत होती हैं जैसे वास्तविक जीवन की उनकी कुत्सित मान्यताएं. प्रकृति प्रदत्त उनकी अवस्थाएं जिन्हें विभाजन की आज़ादी देती हैं जो वास्तव में उनकी खूबसूरती हैं.

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